अपने ही गांव में भुला दिए गए आचार्य शिवपूजन सहाय, 21 जनवरी को है स्मृति दिवस

अपने ही गांव में भुला दिए गए आचार्य शिवपूजन सहाय, 21 जनवरी को है स्मृति दिवस

 नीतीश कुमार ने आचार्य शिवपूजन सहाय की याद में यहां एक पार्क का उद्घाटन किया, प्रतिमा स्थापित की गई है। जयंती व पुण्यतिथि पर कोई याद करने पहुंचे, ऐसा कभी नहीं देखा जाता |

प्रशासनिक उपेक्षा के कारण धुंधली हो रही 'साहित्य के शिव' की स्मृतियां
बक्सर :  हिंदी साहित्य के शिव कहे जाने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय के पैतृक गांव में भी अब लोग उन्हें भूलने लगे हैं। बक्सर के इटाढ़ी प्रखंड के उनवास गांव की जिस धरती पर उनका जन्म हुआ वहां के लोग भी उनके कृतित्व को धीरे-धीरे भुला रहे हैं 

26 दिसंबर 2019 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आचार्य शिवपूजन सहाय की याद में यहां एक पार्क का उद्घाटन किया, जिसमें आचार्य की प्रतिमा भी स्थापित की गई है लेकिन, आचार्य की जयंती व पुण्यतिथि पर उनको यहां कोई याद करने पहुंचे ऐसा कभी नहीं देखा जाता। प्रशासनिक अधिकारी भी आचार्य की प्रतिमा पर फूल तक चढ़ाना मुनासिब नहीं समझते।

इटाढ़ी प्रखंड के उनवास गांव में आचार्य का जन्म 9 अगस्त 1883 में हुआ था तथा मृत्यु 21 जनवरी 1963 को पटना में हो गई। उनकी याद में पूर्व में भी एक प्रतिमा का अनावरण तत्कालीन जिला पदाधिकारी दीपक कुमार ने 16 अप्रैल 1992 में किया था लेकिन, इनकी प्रतिमा के समीप सदैव गंदगी पसरी रहती थी तथा प्रतिमा का सुध लेने वाला भी कोई नहीं था।

 बाद में वर्ष 2019 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने बक्सर आगमन के दौरान आचार्य के नाम पर एक नए पार्क और नई प्रतिमा का अनावरण किया तब यह उम्मीद जगी थी कि आचार्य की विरासत को एक बार फिर नई पहचान मिलेगी लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। पहले की तरह ही आचार्य की प्रतिमा को कोई पूछने तक नहीं आता। जिस पार्क मे रंग-बिरंगे फूलों से साज-सज्जा की गई थी वह भी धीरे-धीरे बदहाल हो गया है। आज जब उनकी पुण्यतिथि का समय आया तो उनकी जन्मस्थली सिसकते हुए उपेक्षाओं की कहानी कह रही है।

गांव से टूट गया है अपनों का भी रिश्ता :

ग्रामीण बताते हैं कि आचार्य के परिजन भी परदेसी हो चुके हैं। वह कभी-कभार ही गांव आते हैं। उनका पैतृक मकान भी अब खंडहर में तब्दील हो चुका है। स्थानीय ग्रामीण संतोष कुमार बताते हैं कि कभी-कभार कुछ ग्रामीण आचार्य के प्रतिमा पर श्रद्धा के फूल तो चढ़ा देते हैं लेकिन, अफसोस तब होता है जब जनप्रतिनिधि या प्रशासनिक अधिकारी जयंती और पुण्यतिथि पर भी आचार्य को याद करने नहीं पहुंचते।

उपलब्धियों से भरा रहा बक्सर की धरती के लाल का जीवन : 

आचार्य की प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई बाद में वह आरा चले गए। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वर्ष 1921 तक उन्होंने हिंदी के शिक्षक के रूप में कार्य किया। वर्ष 1923 में उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। उन्होंने कोलकाता में 'मतवाला' नामक पत्र के संपादक का पदभार संभाला। एक साल के बाद वह लखनऊ चले गए जहां उन्होंने 'माधुरी' पत्रिका का संपादन किया। इसी क्रम में उन्होंने बिहारी अस्मिता पर आधारित 'देहाती दुनिया' की रचना की। बाद में वह बिहार चले आए तथा भागलपुर से प्रकाशित होने वाली 'गंगा' का भी संपादन किया। चार साल के बाद वह छपरा चले गए जहां उन्होंने हिंदी के प्रोफेसर के रूप में छपरा के राजेंद्र कॉलेज में कार्य किया, जहां उन्होंने 'माता का आंचल' तथा 'विभूति' जैसी विख्यात कृतियों की रचना की। 

साहित्य को समर्पित रहा जीवन :

आजादी के बाद वर्ष 1949 में वह राजभाषा परिषद के सदस्य बनाए गए जहां अपने निर्देशन में उन्होंने 50 से ज्यादा रचनाओं का संपादन किया। बाद में वह परिषद के अध्यक्ष भी बनाए गए। उन्होंने 'हिंदी साहित्य और बिहार' जैसी रचनाएं कर बिहारी शैली की अभिव्यक्ति की नई कहानी दुनिया के सामने रखी। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए वर्ष 1960 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। वर्ष 1963 की 21 जनवरी को उनके गोलोक गमन के बाद भी उनकी 'मेरा जीवन' 'स्मृति शेष' तथा 'वे दिन वे लोग' जैसी कालजयी रचनाएं प्रकाशित हुई।

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