धार्मिक व्याख्यान: " शुभ कर्मों का संचय होता है सुखकर "

धार्मिक व्याख्यान: " शुभ कर्मों का संचय होता है सुखकर "

शुभ कर्म करो | अशुभ कर्म में सहयोग न दो, कोई पाप कर्म न करो| आदमी को शुभ कर्म बार - बार करने चाहिए, उसी में चित्त लगाना चाहिए | 

रिपोर्ट- हंसदीप पांडेय (शास्त्री )

शुभ कर्मों का संचय सुखकर होता : 

जिस काम को करके आदमी को पछताना न पड़े और जिसके फल को वह प्रसन्न मन से भोग सके , उस काम को करना सबसे अच्छा है । ऐसा कोई भी काम करना अच्छा नहीं , जिसके करने से पछताना पड़े और जिसका फल आँसू बहाते हुए और रोते हुए भोगना पड़े । 

शील की सुगंध चंदन से बढ़कर: कहा जाता है कि शील ( सदाचार ) की सुगंध चंदन तगर और मल्लिका सबकी सुगंध से बढ़कर है । धूप और चंदन की सुगंध कुछ ही दूर तक जाती है , किन्तु शील की सुगंध बहुत दूर तक जाती है । यदि कोई आदमी दुष्ट मन से कुछ बोलता है , काम करता है तो दुख उसके पीछे - पीछे ऐसे ही हो लेते हैं , जैसे गाड़ी के पहिये खींचनेवाले पशु के पीछे - पीछे ।

 "आलस्य शुभ कर्मों को रोकता है"

शुभ कर्मों में आलस्य न करे । बुरे विचारों का दमन करें । जो शुभ कर्म करने में ढील करता है , उसका मन पापों में रमण करने लगता है । पापी भी सुख भोगता है , केवल तबतक ही ; जबतक उसका पापकर्म पकता है , तब वह दुःख भोगता है ।

"कोई आदमी बुरा या छोटा नहीं"

कोई आदमी बुराई को छोटा न समझे और अपने दिल में यह न सोचे कि यह मुझ तक नहीं पहुँच सकेगी । जिस प्रकार पानी की बूँदों के गिरने से एक पानी का घड़ा भर जाता है , इसी प्रकार थोड़ा - थोड़ा पापकर्म करके मूर्ख आदमी पाप से भर जाता है । 

भूख सबसे बड़ा रोग:

यदि आदमी पाप करता है , तो बार- बार न करें । बार - बार किया गया पाप इकट्ठा होकर अंततः दुःख ही देता है । भूख सबसे बड़ा रोग है । जो इस यथार्थ को जान लेता है , उसके लिए निर्वाण सबसे बड़ा सुख है । जो आदमी अत्यन्त सहनशील होता है , वह अपने आपको उस स्थिति में पहुँचा देता है , जहाँ उसके शत्रु उसको चाहने लगते हैं , ठीक उसी प्रकार जैसे आकाशबेल वृक्ष को घेरे रहती है । अकुशल तथा अहितकर कर्मों को करना आसान है । कुशल तथा हितकर कर्मों को करना कठिन है ।

 लोभ से दुःख पैदा होता है: लोभ से भय पैदा होता है । जो लोभ से मुक्त है , उसे न भय है और न ही दुख । आदमी को किसी भी वस्तु के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए । वस्तु विशेष की हानि से दुख पैदा होता है । जिन्हें न किसी से प्रेम है और न ही घृणा , वे बंधन मुक्त हैं । किसी को क्लेश मत दो । किसी से द्वेष मत रखो । क्या संसार में कोई आदमी इतना निर्दोष है कि उसे दोष दिया ही नहीं जा सकता ? क्या शिक्षित घोड़ा चाबुक की मार की अपेक्षा नहीं रखता ? 

 ...ऐसा बुद्ध ने कहा

क्षमा सबसे बड़ा तप है और निर्वाण सबसे बड़ा सुख , ऐसा बुद्ध कहते हैं । जो दूसरों को आघात नहीं पहुँचाये , वह प्रवर्जित । जो दूसरों को पीड़ा न दे , वही श्रमण है । न जीव हिंसा करो और न ही कराओ । जो सुख चाहनेवाले प्राणियों को न कष्ट देता है और न जान से मारता है , वह सुख प्राप्त करेगा ।