आईपीएफ नेता अजय राय ने कहा कि आदिवासी पुश्तैनी रूप से वन की जिन जमीनों पर हैं या खेती कर रहे हैं। इन जमीनों पर अधिकार के लिए संसद ने जो वनाधिकार कानून बनाया उसका भी माखौल बना दिया गया।
लखनऊ ,पूर्वांचल न्यूज़ प्रिंट | आईपीएफ नेता अजय राय ने कहा है कि आदिवासी पुश्तैनी रूप से वन की जिन जमीनों पर हैं या खेती कर रहे हैं। इन जमीनों पर अधिकार के लिए संसद ने जो वनाधिकार कानून बनाया उसका भी माखौल बना दिया गया।
सोनभद्र मिर्जापुर और चंदौली के आदिवासी बहुल क्षेत्र समेत पूर्वी उत्तर प्रदेश में आदिवासी समुदाय के अस्तित्व और अस्मिता दोनों पर हमला किया जा रहा है। ये सत्ता से लेकर सरकारी मशीनरी तक के मार को झेल रहे हैं।
आलम यह है कि आदिवासी पुश्तैनी रूप से वन की जिन जमीनों पर रह रहे हैं या खेती कर रहे हैं। प्रशासन व वन विभाग उन्हें बेदखल करता रहता है। इन जमीनों पर अधिकार के लिए देश की संसद ने जो वनाधिकार कानून बनाया उसका भी माखौल बना दिया गया।
आंकड़ों को सच मानें तो सोनभद्र में 65 हजार दावों में 53 हजार, चंदौली में 14 हजार में से 13 हजार और मिर्जापुर में 4500 में से चार हजार उनके रहन सहन के दावों को गैरकानूनी ढंग से खारिज कर दिए गए है। उन आदिवासी दावेदार को न नोटिस दी गई और न सुनवाई का अवसर दिया गया।
इसके खिलाफ आइपीएफ से जुड़ी आदिवासी वनवासी महासभा दो बार हाईकोर्ट गई। हाईकोर्ट ने दावों को कानून के अनुसार निस्तारित करने को कहा लेकिन आरोप है कि मौजूद आदिवासी विरोधी योगी सरकार ने इसे नहीं माना।
आज भी आदिवासियों पर जुल्म ज्यादती जारी है। यहाँ आदिवासियों को उनकी आदिवासी पहचान तक नहीं दी गई। कोल को आदिवासी नहीं माना जाता। आदिवासी धांगर से तो उसका अनुसूचित जाति का दर्जा भी छीन लिया गया।
चंदौली के नौगढ़ के गोंड़, खरवार, चेरो आदिवासी नहीं माने जाते हैं। सरकार के खजाने में सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला सोनभद्र देश के सर्वाधिक पिछड़े जिले में आता है। बड़े औद्योगिक केन्द्र होने के बाद भी आदिवासियों को रोजगार के अभाव में पलायन करना पड़ता है।
आज भी आदिवासी ग्रामीणों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। उन्हें चुआड़, नालों, बांध का पानी पीने के लिए मजबूर हो अपनी जान गंवानी पडती है। हजारों आदिवासी लड़कियां पढ़ना चाहतीं है, देश के विकास में योगदान देना चाहतीं है लेकिन उनके लिए एक अदद सरकारी डीग्री कालेज तक नहीं है।
स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बेहाल है, सरकारी अस्पतालों में डाक्टर और न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं है। खटिया पर लादकर इलाज कराने गांव से लोगों को लाना पड़ता है। गांवों में आवागमन के साघन तक नहीं है। आदिवासियों की संस्कृति, भाषा व लिपि पर हमले हो रहे है।
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