बिहार में बसपा जनाधार का क्या होगा, दलित किसके सिर पर बांधे सेहरा !

बिहार में बसपा जनाधार का क्या होगा, दलित किसके सिर पर बांधे सेहरा !


                                                                                                                             ◆ रामगढ़ विधान सभा क्षेत्र में प्रत्याशियों को लेकर गरमा रही है सियासत
                                                      दुर्गावती (कैमूर): बिहार राज्य के रामगढ़ विधान सभा क्षेत्र के राजनीतिक परिवेश में बसपा के बदलते समीकरण और नए- नए चेहरों आने के बाद यहां की राजनीतिक में लोगों के बीच भावी उम्मीदवारों के समीकरण को लेकर चौक-चौराहों पर सियासत की चर्चा होनी शुरू हो गई है.
                                                        खबर है कि भैया जगदानंद सिंह के छोटे भाई अंबिका यादव एवं जीटी रोड के शहंशाह कहे जाने वाले धर्मेंद्र गुप्ता भी मैदान में उतरने की चर्चाएं जोर पकड़ रही है. जिनका पूर्व में समाज में और दलितों के प्रति क्या स्नेह और प्यार रहा है, यह भी चर्चा का विषय बना हुआ है.
इतिहास गवाह है कि कैमूर जिले में महाबली सिंह कुशवाहा व रामचंद्र यादव एवं सुरेश पासी को चुनाव जीतने के बाद कैमूर जिला बहुजन समाज पार्टी को पूरे बिहार में अस्तित्व में ला दिया था.
लेकिन तीनों जीते हुए नेताओं को सत्ता पक्ष में भाग जाने के बाद लंबे समय से कैमूर की धरती पर बहुजन समाज पार्टी का जनाधार शून्य हो गया था.
             
                                                         लेकिन सन 2007 में बहुजन समाज पार्टी में इंट्री प्रमोद सिंह उर्फ पप्पू सिंह की हुई.
जिसके बाद बहुजन समाज पार्टी में जिले के हर गांव में अपना पांव पसारा और इसका सीधा फायदा जिले के बहुजन समाज पार्टी के चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों ने भी उठाया.यही नहीं पार्टी को मजबूत और खड़ा करने में योगदान सर्वाधिक रहा है.
                                                         आइए थोड़ा यहां की राजनीतिक समीकरण की तरफ बढ़े तो चुनावी मतदाता के अनुसार राजपूत वोट 40,000, दलित वोट 45000 व यादव वोट 20000,मुस्लिम वोट 21000, बनिया वोट 15000, कुशवाहा वोट 16000, बिंद समाज वोट 18000, ब्राह्मण वोट 19000, भूमिहार 12000, कायस्थ वोट 6000 और ऐसे ही अन्य जातियों के वोट पुराने लिस्ट के अनुसार हैं.                                                        गौरतलब है कि वर्तमान विधायक अशोक सिंह व  वर्तमान राजद के भावी प्रत्याशी पूर्व मंत्री पुत्र सुधाकर सिंह दोनों स्वजातीय हैं.
इसलिए दोनों के वोट में एक दूसरे के बीच खुद की रस्साकशी दिखती है.
 और वही भैया के छोटे भाई उसी राजद के वोट में भी  उनकी स्थिति खिसकाते करते नजर आ रहे हैं. 
जबकि वर्तमान विधायक के माध्यम से पार्टी में आए वैश्य समाज से कार्यकर्ता धर्मेंद्र गुप्ता भावी प्रत्याशी के रूप में नजर आ रहे हैं. इनकी भी लोगों में चर्चा है. वर्तमान भाजपा विधायक के रहमों करम पर मोहनिया और दुर्गावती के प्रमुख पद पर विराजमान हैं,  जो यह एक वर्तमान विधायक को जिताने की सोची समझी रणनीति दिखाई दे रही है ऐसी भी एक चर्चा लोगों के बीच बहुत गंभीर रूप से हो रही है.
अब देखना यह है कि क्या वर्तमान विधायक अपने इस सोची-समझी रणनीति में सफल हो पाएंगे.
                                                               यही नहीं वर्तमान विधायक के पूर्व में भैया के विधायक रहे छोटे भाई अंबिका यादव 
 जो बहुजन समाज पार्टी में ज्वाइन किए हैं, ये भी दलित समाज, बाबा साहब एवं रविदास के अनुनायियों से उम्मीद लगा रहे हैं जबकि उनके ऊपर पूर्व में दलित विरोधियों की मदद करने जैसे आरोप भी लगते रहे हैं.                                                             अब सवाल यह है कि क्या इन बातों को भूला कर बहुजन समाज पार्टी टिकट देगी.
 यही नहीं वर्तमान में वैश्य समाज से जो आए हैं, जिनका इतिहास तथाकथित नेशनल हाईवे माफिया और पूर्व में एक आईएएस अधिकारी के साथ भी जुड़ा होने की चर्चाएं आम है. क्या ऐसे में इन्हें पार्टी से टिकट का अवसर मिल सकता है. अगर हां तो , क्या यह चुनाव वर्तमान में पार्टी सेवक या पार्टी विरोधियों के बीच माना जायेगा ?
 इसकी साफ तस्वीर तो रामगढ़ विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद ही सामने आ पाएगा.
                                                           इस चुनावी वर्ष में जिनका समाज या पार्टी में कोई योगदान नहीं रहा है, वैसे लोग भी प्रत्याशी बनकर अपनी किस्मत आजमाने के लिए बसपा में डेरा डाल चुके हैं. दूसरे दलों से आकर टिकट लेने के लिए दिन- रात एड़ी चोटी एक किए हुए हैं.
                                                       जिनका ना तो पार्टी में और ना ही समाज में कोई योगदान रहा है. दीन- दुखियों गरीबों के प्रति भी इनका कोई योगदान नही रहा हैं.
 देश की तमाम पार्टियों जातीय समीकरण के आधार पर अपना- अपना उम्मीदवार मैदान में उतारती हैं, जाति समीकरण पर अगर एक बार नजर डाला जाए तो रामगढ़ की राजनीति में चर्चित राजद के कद्दावर नेता और वर्तमान विधायक दोनों एक ही जाति से आते हैं. उसी में कद्दावर नेता जगदानंद सिंह के शिष्य अंबिका यादव को यदि बसपा पार्टी इनको टिकट देती है,
                                                              तो फारवर्ड वोट और अन्य बिरादरी के वोट इनसे सकता है, जैसी की चर्चा है.
क्योंकि रामगढ़ विधानसभा में राजद का प्लस वोट यादव और मुस्लिम ही रहा है. जो फिलहाल आपसी लड़ाई में कटता नजर आ रहा है. इसकी भी चर्चाएं चौक-चौराहे पर हो रही है. 
                                                            यदि बसपा वैश्य समाज के धर्मेंद्र गुप्ता को टिकट देती है तो उनकी बिरादरी के वोट जो बीजेपी का ऋण है, वह क्या संपूर्ण वोट काट पाएंगे, यह बड़ा सवाल खड़ा करता है, क्योंकि उनकी जनसंख्या लगभग 15000 है.
वैसी स्थिति में त्रिकोणीय लड़ाई में सीधे वर्तमान विधायक के खाते में लोगों का समर्थन जाता दिख रहा है.
इस लड़ाई में यदि बहुजन फारवर्ड उम्मीदवार लाती है
तो त्रिकोणात्मक खींचातानी की लड़ाई में वह बसपा उम्मीदवार के साथ जुड़ने पर विचार कर रहा है.जो पार्टी का  विधानसभा में पहुंचाने का संबल होगा. जिसके आधार पर कैमूर जिले में पुनः बसपा अपने अस्तित्व में आ सकता है.
ऐसी भी चौक चौराहे पर चर्चाएं हो रही है कि यदि यादव कैंडिडेट पार्टी देती है तो राजद के सुप्रीमो के भक्त आधे- आधे खेमे में भटकते नजर आ सकते हैं. 
                                                       क्योंकि यादव बिरादरी अपने सुप्रीमो को कैंडिडेट को हारना नहीं देखना चाहेगी. यह भी बहुजन समाज पार्टी के लोगों के लिए सोचने का विषय है. वर्तमान परिवेश में राजद रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में लड़ाई खड़ा नहीं कर पा रही है .
और त्रिकोणात्मक लड़ाई में यदि पार्टी सवर्ण को टिकट नहीं देती है तो पुनः विधानसभा जाने की संभावना नहीं दिखती है. 
क्योंकि राजद भाजपा के सवर्ण उम्मीदवारों के चलते कोई भी साधारण उम्मीदवार दूसरा नहीं दिखाई देता है.
जिसका पार्टी सवर्ण उम्मीदवार देकर दलित वोट व सवर्ण वोट का फायदा ले सकती है. सच तो यह है कि
बिहार में बसपा का उत्थान व पतन का ही इतिहास यहीं से शुरू हुआ है. बसपा आला कमान व सभी बसपा प्रभारी आने वाले विधानसभा चुनाव में फूंक-फूंक कर कदम यदि नहीं रखे तो बसपा का पुनर्जन्म बिहार में होना संभव नहीं हो सकता है.
                                                            क्यूंकि बसपा के बिहार में प्रभारियों का इतिहास कुछ अजीब रहा है, जहां पुराने चेहरे को जिन्होंने बहुत अथक परिश्रम करके क्षेत्र को बनाया उनके टिकट को काट कर नए चेहरों को टिकट दे देते हैं. जो बसपा को हारने का मुख्य कारण बन जाता है.
इसकी भी चर्चा चौक चौराहे पर जनता में काफी जोर पकड़े हुए हैं.
                                                            अब देखना यह है कि बहुजन समाज पार्टी जमीनी कार्यकर्ता को टिकट देती है या पुनः वही गलती दोहराती है जो पूर्व में करती आ रही है.                    रिपोर्ट:संजय मल्होत्रा